Saturday, October 11, 2008
छोकरी का रिबनः अछूत होने का मजा
हम बनाते रहे हैं जमाने से। हुनरमंद लोग है इसे क्राफ्ट का दर्जा हासिल है हमारे देश में। हर पुरानी कल्चर का एग्रीकल्चरपन है कि हर चीज को आर्ट में बदल कर दुनिया के सामने एक्जीबिशन लगा देती है। एक तो अछूत साजिशन बनाए जाते हैं। ताकि हम सोशली हिरार्ची के मेयार पर खड़े होकर हांके और वे हमारे हुक्म की तामील करते रहें। कोई सवाल न उठाएं वे इसलिए यह दूरी जरूरी है।
दूसरे एक और कला है, अछूत बनना। जिसमें अहमक समझे जाने वाले लोग अक्सर रियाज के जरिये महारत हासिल करते हैं। दोस्तोवस्की के नाविल द इडियट में इसे बलंदी तक एक्सप्लोर करने की कोशिश की गई है। जिन्होंने पढ़ा है उन्होंने सौ घूंसों से पापड़ तोड़ते प्रिंस नेख्लूदोव को देखा होगा। अगर तमन्ना हो महसूस करने की कि अछूत होने के मायने क्या होते हैं तो खुद भी बना जा सकता है।
वह यह है कि चालू फैशन से उचक कर जरा दूर, बस कोई हाथ भर दूर हट जाएं। दूर हट कर दाएं और फिर बांए गरदन को मोड़ते हुए देखने जैसे मुद्रा बनाएं, ध्यान रहे कि कुछ दिखना नहीं चाहिए। वैसे फैशन यह है कि लच्छेदार लफ्जों में एब्सट्रैक्ट किस्म की बातें करें। अंग्रेजी की चार सात फिल्मों, छह किताबों और पांच नामचीन शख्शियतों का तड़का बघार सकते हैं तो आप वाकई दाल के दानिशवर हैं। सीधे कभी किसी पर हमला करना तो दूर खिलाफ बोला भी न जाए। ट्रेंड यानि परविरित्तियो पर अपने ख्याल जाहिर किए जाएं, सिस्टम की तरफ मिर्च दिखा कर सीसी किया जाय और एक गुंजाइश भी रखी जाए कि पता नहीं कब कौन काम का साबित हो तो उसेसे ईद मिली जा सके। ईदी का नंबर बाद में आता है। आता ही आता है। अगर आप खातून हैं तो कतई नहीं। खातून का काम कपड़े, ज्वैलरी, हुस्न वगैरा की चाशनी में लपेट कर थोड़ी बहुत दुनिया की चिंता करने से आगे नहीं जानता। इतना ही काफी है लोग कहने लगते हैं अरे देखो बेचारी कितनी खूबसूरत है फिर भी इंटलेक्चुअल है। इसके लिए शायरी सबसे मुफीद जरिया है। गेसू, आंखें, लब, पेशानी, रूखसार, उंगलियों वगैरा के हवाले से बात करे तो क्या कहने। फिर तो मकबूलियत के परनाले बहने ही बहने।
बाई द वे अछूत बनना हो सीधे नाम लेकर ब्लैक एंड व्हाईट में लिखें। अपनी राय को हाय-हाय के दायरे से बाहर खींच कर व्हाय-व्हाय? से जाहिर करें। तू सफेद मैं काली। जाहिर है एक पक्ष चुनना होगा। पक्ष चुनते ही आपको उससे जुड़े सारे बवाल का भी जिम्मा लेना होगा। ऐसा होते ही अछूत हो जाएंगे। बड़ा मजा आएगा। वाकई। हुर्रा.....।
Thursday, October 9, 2008
धुनुची, आतंकवादी और बंगाल
देबी आज रूखसत हुई। कल शाम बंगाली खातून का धुनुची नाच देखा। क्या नाच है। दांतों से दबा कटोरा मिट्टी का कटोरा, उसमें लहकते शरारे, धुंए के बीच ढाक की रिद्म थाप। लगता है रह-रह कर खून समंदर के पानी की तरह उछलता है। सम पर आए कि पेश्तर फिर उछल जाता है। बंगाल की हवा-पानी में कुछ तो है, यहां की खातून की जिल्द में एक खास तरह का नूर झिलमिलाता है। वे पंजाबन या मराठा औरतों की तरह झटके लेकर नहीं नाचतीं। उनका रक्स एक मंद सुरूर की तरह चढ़ता है, उतरता है। एक मीठा जुनून जो देर तक तारी रहता है।
बोंग लोगों में खातून को थोड़ा ज्यादा इज्जत भी हासिल है। ऐसा लगता है। पता नहीं साहिब, बीबी, गुलाम, खरीदी कौड़ियों के मेल और बेगम मेरी विस्वास पढ़कर तो कुछ उल्टा ही लगा था।....लेकिन हार्डिंग पर बम फेंकने वाली दो बंगालनें ही थीं। अब इंग्लिश चैनल पार करने वाली बुला चौधरी है। एक और खातून है जिसे अखबार वाले बांगालेर बाघिन कहते हैं। लड़ती खूब है। गोया उसे लड़ने में मजा आता है। लेकिन वह मुझे मिसगाइडेड मिसाइल ज्यादा लगती है। मामता बैनर्जी। जब पॉवर में हो तो नहीं लड़ती। अपोजिशन में हो तो लड़ती है। क्या पता बस बीपी का मामला हो। बोंग लोग ज्यादा बेहतर बता पाएंगे। एक बात अच्छी है कि आपको यहां अपनी बात कहने से कोई नहीं रोक सकता।
रावन भी जल गया। पटाखे कुछ ज्यादा ही थे। पटाखो की ईजाद किसने की होगी। शर्तिया मर्द ने। वे उसकी तबाही लाने वाली ताकत के सिंबल जो ठहरे। शायद हर मर्द के भीतर एक आतंकवादी होता है जो वायलेंस के हर कारनामें को अपने खास अंदाज में अंजाम देना चाहता है उसे इसमें मजा जो आता है।
मैं यह इस कर नही् कह रही कि अब्बू छोड़ बाकी मर्द जात से मेरी कोई जाती दुश्मनी है और उस पर तरह-तरह के इल्जाम लगा के फेमिनिज्म का कागजी झंडा बलंद रखना है। मैं अपने इक्कीस साल के आब्जर्वेशन के नाते कहती हूं कि मर्द चाहता है कि लोग उसे डरें। उसके गुस्से से खौफ खाएं। बीवी, बच्चे, दफ्तर वाले यहां तक पान वाला, रिक्शे वाला सभी। इस डर को जताने के ढेरों तरीके उसके सबकांशस ने ईजाद किए हैं जिसमें से एक इतने धमाकों के साथ रावन फूंकना भी है......वरना क्या बुरा था कि कंदीलों की रौशनी एक तीर राम की सिम्त से आता था, नाभि में लगता था और आग लग जाती थी।
अब ध्यान बहादुर और सलोने राम पर नही कान बहरा कर देने वाले धमाकों पर जाता है। क्रिकेट के खेल में कब दूसरों पर खौफ गालिब करना पड़े लोग बारहो महीने पटाखे घर में रखने लगे हैं। दुर्गा पूजा के ऐसे कारकुनों की तादाद खासी हो चली है जो कमर में पिस्तौल खोंस के मैनेजमेंट करते हैं या प्रसाद बांटते हैं।....इसके उलट औरत ऐसा नही चाहती। वह डराती नहीं। वह चाहती है उसे देखा जाए, सराहा जाए और उसकी शख्शियत को इंटीग्रिटी और ग्रेस के साथ कबूल किया जाए।
बोंग लोगों में खातून को थोड़ा ज्यादा इज्जत भी हासिल है। ऐसा लगता है। पता नहीं साहिब, बीबी, गुलाम, खरीदी कौड़ियों के मेल और बेगम मेरी विस्वास पढ़कर तो कुछ उल्टा ही लगा था।....लेकिन हार्डिंग पर बम फेंकने वाली दो बंगालनें ही थीं। अब इंग्लिश चैनल पार करने वाली बुला चौधरी है। एक और खातून है जिसे अखबार वाले बांगालेर बाघिन कहते हैं। लड़ती खूब है। गोया उसे लड़ने में मजा आता है। लेकिन वह मुझे मिसगाइडेड मिसाइल ज्यादा लगती है। मामता बैनर्जी। जब पॉवर में हो तो नहीं लड़ती। अपोजिशन में हो तो लड़ती है। क्या पता बस बीपी का मामला हो। बोंग लोग ज्यादा बेहतर बता पाएंगे। एक बात अच्छी है कि आपको यहां अपनी बात कहने से कोई नहीं रोक सकता।
रावन भी जल गया। पटाखे कुछ ज्यादा ही थे। पटाखो की ईजाद किसने की होगी। शर्तिया मर्द ने। वे उसकी तबाही लाने वाली ताकत के सिंबल जो ठहरे। शायद हर मर्द के भीतर एक आतंकवादी होता है जो वायलेंस के हर कारनामें को अपने खास अंदाज में अंजाम देना चाहता है उसे इसमें मजा जो आता है।
मैं यह इस कर नही् कह रही कि अब्बू छोड़ बाकी मर्द जात से मेरी कोई जाती दुश्मनी है और उस पर तरह-तरह के इल्जाम लगा के फेमिनिज्म का कागजी झंडा बलंद रखना है। मैं अपने इक्कीस साल के आब्जर्वेशन के नाते कहती हूं कि मर्द चाहता है कि लोग उसे डरें। उसके गुस्से से खौफ खाएं। बीवी, बच्चे, दफ्तर वाले यहां तक पान वाला, रिक्शे वाला सभी। इस डर को जताने के ढेरों तरीके उसके सबकांशस ने ईजाद किए हैं जिसमें से एक इतने धमाकों के साथ रावन फूंकना भी है......वरना क्या बुरा था कि कंदीलों की रौशनी एक तीर राम की सिम्त से आता था, नाभि में लगता था और आग लग जाती थी।
अब ध्यान बहादुर और सलोने राम पर नही कान बहरा कर देने वाले धमाकों पर जाता है। क्रिकेट के खेल में कब दूसरों पर खौफ गालिब करना पड़े लोग बारहो महीने पटाखे घर में रखने लगे हैं। दुर्गा पूजा के ऐसे कारकुनों की तादाद खासी हो चली है जो कमर में पिस्तौल खोंस के मैनेजमेंट करते हैं या प्रसाद बांटते हैं।....इसके उलट औरत ऐसा नही चाहती। वह डराती नहीं। वह चाहती है उसे देखा जाए, सराहा जाए और उसकी शख्शियत को इंटीग्रिटी और ग्रेस के साथ कबूल किया जाए।
Tuesday, October 7, 2008
वो देवी-देवी......ये जूती...जूती.
इन दिनों धूप में चौंध तो है लेकिन किरनों की नोकें मुलायम पड़ने लगी हैं। दोपहर में बरछी की तरह लगे तो शाम को सहलाती भी है। ओह, ओस पड़ने लगी है। कितने दिन हुए उसे सुबह-सुबह देखे। बचपन मे उसे शीशी में भरते थे। किसी घास या फूल पर ताजा, हैरत से ताकती एक आंख जिसमें सारी कायनात झिलमिलाती है। लेकिन ओस हमारी जिंदगी से जा रही है और उसकी खाली जगह को भरने के लिए स्प्रे, टिशू पेपर, फेंगशुई और केमिकल से बनी ढेर सारी टायलेट्रीज आ रही है, जिनके बारे में बला की खूबसूरत और जरा सलीके की बेहया मॉडलों का दावा है कि ये चीजें हमें ताजगी और अहसास देती हैं। लाहौल बिला...और मुझ पर माजी का नजला गिरे मैं फिर मीनमेख निकालने में जुट गई।
.........गरज ये है कि साल का यह समय बेहद पुरकैफ औऱ रूहानी तासीर से भरा-भरा लगता है। बचपन से। हवा में लोबान, गुगल की महक, ढाक की थाप, पूजा के खेमों से देर रात लौटती लड़कियों की हंसी और एक इत्मीनान कि सारे कामधाम थोड़ी देर को रोक दो देवी आ रही हैं। हवा में कुछ होता है जो कहता है कि हाथ फैलाकर, इस इरादे से कि सारी कायनात का अर्क भीतर भर जाए, जोर की सांस लो। कपास के फूलों के ऊपर से जाते बचे खुचे सुफेद नन्हें-नन्हें बादलों को खुदा हाफिज कहो। वे अब अगले साल से पहले नहीं आने वाले। मन.....उस काली सफेद चिड़िया क्या तो नाम है उसका जो इन्हीं दिनों आती है, कहीं ठहरती नहीं...की तरह भागता है। ओह, बदलते मौसम में इतना चंचल तो बस प्यार ही हो सकता है। पुराने दोस्त याद आते हैं और फुसफुसाहटों के टुकड़े कानों के पास उड़ने लगते हैं। एक बार तो विसर्जन को जाते शरारती लड़कों ने सरसों की मुट्ठी दे मारी थी जो देर तक कपड़ों के भीतर घुस कर गुदगुदी मचाती रही।
क्या दिन होते हैं ये। बारिश की झड़ी और जाड़ों की धुंध के बीच का ट्रांजिशन पीरियड। बरामदा है जिसके एक तरफ सर्दी तो दूसरी तरफ गरमी। हमारे मुल्क में अगस्त में गेट वे आफ फेस्टिवल खुलता है जसका महकता रास्ता, मकरसंक्राति के आगे होली तक जाता है।
देवी को देखने, ताकत को महसूस करने, आदाब कहने जरूर जाती हूं। उनके आगे हाथ मे शोले के कटोरे लिए वह नाच बेहद अच्चा लगता है। बस एक बात अजीब लगती है कि हमारी सोसायटी में जहां, देवी पर लोगों का इतना अकीदा है कि नौ दिन शराब नही पीएंगे, गोश्त नहीं खाएंगे यहां तक कि बाज नेता झूठ नहीं बोलते और अफसरान दफ्तरों में इन दिनों रिश्वत तक नहीं लेते, वहां औरतों की इतनी बेकदरी क्यों है?
यह पाखंड हमारी सोसायटी की बेहद खास पहचान है। कम अज कम मै तो इसे शिद्दत से महसूस करती हूं। वो देवी, देवी...देवी...ये पांव की जूती...जूती...जूती।।।
इस पाखंड पर बिना उंगली उठाए, बिना इसे लड़े, बिना इसे चूर किए हम कहीं नहीं जा पाएंगे। इस पाखंड के पत्थर के नीचे नखलिस्तान है। आधी आबादी का टारबाइन है। जिसके घूमने की आवाज में यह मंत्र गूंजता है-
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम। मया त्वयि हतेत्रैव गर्जिष्यांत्याशु देवताह।।
काश देवी का नेजा अबके बरस इस मर्दाना पाखंड के अजदहे महिषासुर पर गिरे। आमीन।
Monday, September 29, 2008
वक्त का हर शै गुलाम
ब्लाग बनाया। अरमान से। सोचा था खूब लिखूंगी। पर पता नहीं कैसे छूट गया। जैसे समय कोई डोर हो पतंग की बस फिसल गई और मैं कटे कनकौवे की तरह ढुलमुल हवा में तैरती चली जा रही हूं।
आखिर मैं क्या करती रही कि मुझे समय नहीं मिला। सच बात यह है कि समय था। लेकिन उस खाली समय को किसी और के हिसाब से बिताना था। पता नहीं कितनी जोड़ा मर्द आंखे हैं जो हम खातून के समय को अपने ही ढंग से कंट्रोल करती रहती हैं।
बड़ा पापुलर जुमला है। वक्त पर किसी का जोर नहीं। ट्रकों के पीछे अक्सर लिखा देखा है वक्त का हर शै गुलाम। लेकिन यहां देखिए पुरूष मुकर्रर करता है कि औरत, समय को कैसे बिताए इस तरह समय के बेलगाम घोड़े की रास थाम लेता है। इस नजरिए से सर्वशक्तिमान वक्त की व्याख्या मैंने तो कहीं नहीं देखी है।
नीलोफर जरा सोचो इक्कीसवीं सदी में किसका वक्त चल रहा है।
आखिर मैं क्या करती रही कि मुझे समय नहीं मिला। सच बात यह है कि समय था। लेकिन उस खाली समय को किसी और के हिसाब से बिताना था। पता नहीं कितनी जोड़ा मर्द आंखे हैं जो हम खातून के समय को अपने ही ढंग से कंट्रोल करती रहती हैं।
बड़ा पापुलर जुमला है। वक्त पर किसी का जोर नहीं। ट्रकों के पीछे अक्सर लिखा देखा है वक्त का हर शै गुलाम। लेकिन यहां देखिए पुरूष मुकर्रर करता है कि औरत, समय को कैसे बिताए इस तरह समय के बेलगाम घोड़े की रास थाम लेता है। इस नजरिए से सर्वशक्तिमान वक्त की व्याख्या मैंने तो कहीं नहीं देखी है।
नीलोफर जरा सोचो इक्कीसवीं सदी में किसका वक्त चल रहा है।
Subscribe to:
Posts (Atom)