इन दिनों धूप में चौंध तो है लेकिन किरनों की नोकें मुलायम पड़ने लगी हैं। दोपहर में बरछी की तरह लगे तो शाम को सहलाती भी है। ओह, ओस पड़ने लगी है। कितने दिन हुए उसे सुबह-सुबह देखे। बचपन मे उसे शीशी में भरते थे। किसी घास या फूल पर ताजा, हैरत से ताकती एक आंख जिसमें सारी कायनात झिलमिलाती है। लेकिन ओस हमारी जिंदगी से जा रही है और उसकी खाली जगह को भरने के लिए स्प्रे, टिशू पेपर, फेंगशुई और केमिकल से बनी ढेर सारी टायलेट्रीज आ रही है, जिनके बारे में बला की खूबसूरत और जरा सलीके की बेहया मॉडलों का दावा है कि ये चीजें हमें ताजगी और अहसास देती हैं। लाहौल बिला...और मुझ पर माजी का नजला गिरे मैं फिर मीनमेख निकालने में जुट गई।
.........गरज ये है कि साल का यह समय बेहद पुरकैफ औऱ रूहानी तासीर से भरा-भरा लगता है। बचपन से। हवा में लोबान, गुगल की महक, ढाक की थाप, पूजा के खेमों से देर रात लौटती लड़कियों की हंसी और एक इत्मीनान कि सारे कामधाम थोड़ी देर को रोक दो देवी आ रही हैं। हवा में कुछ होता है जो कहता है कि हाथ फैलाकर, इस इरादे से कि सारी कायनात का अर्क भीतर भर जाए, जोर की सांस लो। कपास के फूलों के ऊपर से जाते बचे खुचे सुफेद नन्हें-नन्हें बादलों को खुदा हाफिज कहो। वे अब अगले साल से पहले नहीं आने वाले। मन.....उस काली सफेद चिड़िया क्या तो नाम है उसका जो इन्हीं दिनों आती है, कहीं ठहरती नहीं...की तरह भागता है। ओह, बदलते मौसम में इतना चंचल तो बस प्यार ही हो सकता है। पुराने दोस्त याद आते हैं और फुसफुसाहटों के टुकड़े कानों के पास उड़ने लगते हैं। एक बार तो विसर्जन को जाते शरारती लड़कों ने सरसों की मुट्ठी दे मारी थी जो देर तक कपड़ों के भीतर घुस कर गुदगुदी मचाती रही।
क्या दिन होते हैं ये। बारिश की झड़ी और जाड़ों की धुंध के बीच का
ट्रांजिशन पीरियड। बरामदा है जिसके एक तरफ सर्दी तो दूसरी तरफ गरमी। हमारे मुल्क में अगस्त में गेट वे आफ फेस्टिवल खुलता है जसका महकता रास्ता, मकरसंक्राति के आगे होली तक जाता है।
देवी को देखने, ताकत को महसूस करने, आदाब कहने जरूर जाती हूं। उनके आगे हाथ मे शोले के कटोरे लिए वह नाच बेहद अच्चा लगता है। बस एक बात अजीब लगती है कि हमारी सोसायटी में जहां, देवी पर लोगों का इतना अकीदा है कि नौ दिन शराब नही पीएंगे, गोश्त नहीं खाएंगे यहां तक कि बाज नेता झूठ नहीं बोलते और अफसरान दफ्तरों में इन दिनों रिश्वत तक नहीं लेते, वहां औरतों की इतनी बेकदरी क्यों है?
यह पाखंड हमारी सोसायटी की बेहद खास पहचान है। कम अज कम मै तो इसे शिद्दत से महसूस करती हूं। वो देवी, देवी...देवी...ये पांव की जूती...जूती...जूती।।।
इस पाखंड पर बिना उंगली उठाए, बिना इसे लड़े, बिना इसे चूर किए हम कहीं नहीं जा पाएंगे। इस पाखंड के पत्थर के नीचे नखलिस्तान है। आधी आबादी का टारबाइन है। जिसके घूमने की आवाज में यह मंत्र गूंजता है-
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम। मया त्वयि हतेत्रैव गर्जिष्यांत्याशु देवताह।। काश देवी का नेजा अबके बरस इस मर्दाना पाखंड के
अजदहे महिषासुर पर गिरे। आमीन।