Thursday, October 9, 2008

धुनुची, आतंकवादी और बंगाल

देबी आज रूखसत हुई। कल शाम बंगाली खातून का धुनुची नाच देखा। क्या नाच है। दांतों से दबा कटोरा मिट्टी का कटोरा, उसमें लहकते शरारे, धुंए के बीच ढाक की रिद्म थाप। लगता है रह-रह कर खून समंदर के पानी की तरह उछलता है। सम पर आए कि पेश्तर फिर उछल जाता है। बंगाल की हवा-पानी में कुछ तो है, यहां की खातून की जिल्द में एक खास तरह का नूर झिलमिलाता है। वे पंजाबन या मराठा औरतों की तरह झटके लेकर नहीं नाचतीं। उनका रक्स एक मंद सुरूर की तरह चढ़ता है, उतरता है। एक मीठा जुनून जो देर तक तारी रहता है।

बोंग लोगों में खातून को थोड़ा ज्यादा इज्जत भी हासिल है। ऐसा लगता है। पता नहीं साहिब, बीबी, गुलाम, खरीदी कौड़ियों के मेल और बेगम मेरी विस्वास पढ़कर तो कुछ उल्टा ही लगा था।....लेकिन हार्डिंग पर बम फेंकने वाली दो बंगालनें ही थीं। अब इंग्लिश चैनल पार करने वाली बुला चौधरी है। एक और खातून है जिसे अखबार वाले बांगालेर बाघिन कहते हैं। लड़ती खूब है। गोया उसे लड़ने में मजा आता है। लेकिन वह मुझे मिसगाइडेड मिसाइल ज्यादा लगती है। मामता बैनर्जी। जब पॉवर में हो तो नहीं लड़ती। अपोजिशन में हो तो लड़ती है। क्या पता बस बीपी का मामला हो। बोंग लोग ज्यादा बेहतर बता पाएंगे। एक बात अच्छी है कि आपको यहां अपनी बात कहने से कोई नहीं रोक सकता।

रावन भी जल गया। पटाखे कुछ ज्यादा ही थे। पटाखो की ईजाद किसने की होगी। शर्तिया मर्द ने। वे उसकी तबाही लाने वाली ताकत के सिंबल जो ठहरे। शायद हर मर्द के भीतर एक आतंकवादी होता है जो वायलेंस के हर कारनामें को अपने खास अंदाज में अंजाम देना चाहता है उसे इसमें मजा जो आता है।

मैं यह इस कर नही् कह रही कि अब्बू छोड़ बाकी मर्द जात से मेरी कोई जाती दुश्मनी है और उस पर तरह-तरह के इल्जाम लगा के फेमिनिज्म का कागजी झंडा बलंद रखना है। मैं अपने इक्कीस साल के आब्जर्वेशन के नाते कहती हूं कि मर्द चाहता है कि लोग उसे डरें। उसके गुस्से से खौफ खाएं। बीवी, बच्चे, दफ्तर वाले यहां तक पान वाला, रिक्शे वाला सभी। इस डर को जताने के ढेरों तरीके उसके सबकांशस ने ईजाद किए हैं जिसमें से एक इतने धमाकों के साथ रावन फूंकना भी है......वरना क्या बुरा था कि कंदीलों की रौशनी एक तीर राम की सिम्त से आता था, नाभि में लगता था और आग लग जाती थी।

अब ध्यान बहादुर और सलोने राम पर नही कान बहरा कर देने वाले धमाकों पर जाता है। क्रिकेट के खेल में कब दूसरों पर खौफ गालिब करना पड़े लोग बारहो महीने पटाखे घर में रखने लगे हैं। दुर्गा पूजा के ऐसे कारकुनों की तादाद खासी हो चली है जो कमर में पिस्तौल खोंस के मैनेजमेंट करते हैं या प्रसाद बांटते हैं।....इसके उलट औरत ऐसा नही चाहती। वह डराती नहीं। वह चाहती है उसे देखा जाए, सराहा जाए और उसकी शख्शियत को इंटीग्रिटी और ग्रेस के साथ कबूल किया जाए।

2 comments:

شہروز said...

kya kahna hai.yaadon kee braat.
ye braat aisi hai k smirtiyon mein hamesha sukhad ehsaas karati hain.

पढिये: अब पत्रकार निशाने पर , क्लिक कीजिये
http://hamzabaan.blogspot.com/2008/10/blog-post.html

Dudhwa Live said...

सुन्दर पुस्तक की याद दिला दी आप ने, क्या हिन्दी अनुवाद का लिंक होगा इस जापानी कथा का,